हम अपने महान गुरु और प्रणेता जिन्होंने हम युवाओ को अपने स्नेह, आशीर्वाद और मार्गदर्शन के द्वारा हमे अपने जीवन का लक्ष्य दिखाया उन महान गुरु को हम शत शत नमन करते है.
Prabhash Joshi SIR (July 15, 1936 – November 5, 2009) was a noted Indian Journalist, especially Hindi journalism. He was a writer and political analyst. He was strongly in favor of "ethics and transparency". He played an part in Gandhian movement, Bhoodan movement, in the surrender of bandits and in the struggle against emergency.Joshi Sir was born in Ashta near Bhopal, Madhya Pradesh, India to Pandarinath Joshi and Leela Bai. Prabhash Joshi began his career with Nayi Duniya, was the founder editor of Hindi daily "Jansatta" in 1983.
He was the founding editor of Hindi daily Jansatta a publication of the Indian Express Group. He, a Gandhian, changed the definition of Hindi journalism with the publication of 'Jansatta'.
He was with the Gandhi Peace Foundation and edited the Hindi version of Everyman’s, a journal devoted to advocating Jayaprakash’s views and sponsored by Ramnath Goenka. This journal campaigned for JP’s movement for purity in public life.
He was also famous for his writings on cricket. He was a popular television commentator and mainly invited for his views and comments on national politics during the Lok Sabha or Vidhan Sabha elections.
Prabhash Joshi Sir had been writing a Sunday column for Jansatta entitled Kagad-Kare over the last many years. Recently he had started writing a weekly column entitled "Aughat-Ghat" for Tehelka Hindi .He also worked with the Indian Express as the resident editor at Ahmedabad, Chandigarh and Delhi. After retiring from the newspaper in 1995, he continued as the chief editorial advisor. He also wrote a book on Hinduism. As he was from the land of the Malwa region of Kumar Gandharva, he loved the unique staccato style of classical vocal music.
He died on Nov 5th 2009 due to a heart attack. Prabhash Joshi is married to Usha Mam. They have two sons Sandeep and Sopan and a daughter, Sonal. His son Sopan Joshi is the managing editor of the Down To Earth magazine.His daughter Sonal Joshi is Executive Producer NDTV Mumbai and elder son Sandeep works for Air India in New Delhi.
Prabhash Joshi's death shocks Sachin
Sachin Tendulkar expressed his shock at noted journalist Prabhash Joshi's death, saying it left a void which would be difficult to fill. "I'm really shocked by his demise," Tendulkar said.
"He was a keen follower of the game and his death has left a void," said the star batsman."Right throughout, his words and opinions have always encouraged me," Tendulkar added.
उनकी कलम का शिकार लगभग देश का हर प्रधानमंत्री और हर नेता हुआ है
साल 2009 में हिन्दी पत्रकारिता ने एक ऐसी शख्सियत खो दी जिसकी जगह अब कोई भी नहीं ले सकता। हिन्दी पत्रकारिता के लिए वो एक ऐसे स्तम्भ थे जिन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी थी। हम यहां बात कर रहे हैं महान पत्रकार प्रभाष जोशी की। प्रभाष जोशी जी ने हिन्दी पत्रकारिता को पांच दशक से ज्यादा का समय दिया था। जोशी जी ने हिन्दी पत्रकारिता की एक नई भाषा शैली तैयार की थी जिसकी छत्रछाया में अनेकों प्रतिभाशाली पत्रकार पनपे हैं। प्रभाष जोशी का जाना पत्रकारिता के लिए एक आम घटना नहीं है। उनके जाने से हिन्दी पत्रकारिता पर बहुत असर पड़ेगा। जोशी जी की मीडिया जगत को बहुत सारी देनें हैं। प्रभाष जी ने पत्रकारिता में अपनी ऐसी जगह बनायी हुई थी कि उनके इस संसार से चले जाने के बाद वो जगह हमेशा खाली रहेगी उस जगह को कोई नही भर सकता। उनके बारे में जितना भी लिखा जाये उतना ही कम है। जोशी जी ने पत्रकारिता का एक धर्म बताया था, वो था “समाजपरक होना” उनका कहना था “पत्रकार की कलम हमेशा समाज को सामने रखते हुए चलनी चाहिए” निष्पक्षता को बढावा देते हुए वो किसी दल का पक्ष करना या उससे प्रभावित होने का विरोध करते थे।
हिन्दी पत्रकारिता की शैली को नया रुप देने वालों में प्रभाष जोशी का नाम मुख्य रुप से गिना जाता है। उन्होंने जनसत्ता के माध्यम से अखबार की भाषा को बदलने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। जोशी जी ने जनसत्ता में आम जन की भाषा को लिखा जो कि आम जनता की भाषा थी। उनका कहना था कि अखबार साहित्य नहीं हैं अखबार में इस तरह लिखे जिससे आम जनता को समझने में सहूलियत हो। इन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को बहुत सारे नये शब्द दिये हैं जो आम जन के शब्द हैं। वो हमेशा “अपने” शब्द को “अपन” लिखते थे। इसी तरह “आतंकवादियों को खड़ाकू, फिदायिनों को मरजीवडे़, छोटे नेताओं को चिरकुट” लिखते थे। ये शब्द दिखने में तो अटपटे लगते थे लेकिन पाठक उनकी इस शैली को बहुत पसंद करते थे। इसी शैली ने जनसत्ता को बुलंदियों पर पहुंचा दिया था। प्रभाष जी हिन्दी से शुरु करके अंग्रेजी से होते हुए हिन्दी में लौटे और हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। जोशी जी के कॉलम कागद कोरे के प्रसिद्ध होने का एक मात्र कारण भी उनकी शैली थी। कुछ लोग तो केवल कागद कोरे पढ़ने के लिए ही जनसत्ता पढते थे। उनका कागद कोरे लगातार 17 साल तक जनसत्ता में छपता रहा बिना रुके। कागद कोरे में वो तथ्य होते थे जो अच्छे-अच्छे की पोल खोल कर रख देते थे इन तथ्यों को पढने वाला चौंक जाता था।
प्रभाष जोशी जी के लेखन और ईमानदारी के आगे तो सभी लोहा मानते थे। उनकी कलम दो विषयों पर तो ऐसे चलती थी कि एक बार चलने के बाद रुकने का नाम ही नही लेती थी। वो एक तो राजनीति पर और दूसरा क्रिकेट पर लिखते थे। प्रभाष जोशी क्रिकेट के ऐसे प्रेमी थे, कि एक भी क्रिकेट मैच को देखने से नहीं चूकते थे। क्रिकेट मैच की एक-एक बॉल के बारे में बारीकी से लिखते थे। जिस दिन मैच होता था वो रात को भी जाग कर मैच देखते थे। बाईपास सर्जरी होने के बाद भी वो मैच के प्रति अपने मोह को नहीं त्याग पाये। भारतीय क्रिकेटर सचिन तेंदूलकर के बहुत बडे प्रशंसक थे। जोशी जी ने खेल पत्रकारिता को भी कई नए शब्द दिये हैं, वो बॉलर को “गोलंदाज” लिखते थे। इस तरह की शैली की वज़ह से प्रभाष जी के खेल पर लिखे लेखों को लोग बहुत पसन्द करते थे। जिस दिन उन्होंने इस दुनिया से विदा ली उसके पहले दिन भी वो आस्ट्रेलिया और भारत का क्रिकेट मैच देख रहे थे। इसके अगले दिन ही उन्हें दो हजार किलोमीटर की यात्रा करनी थी लेकिन फिर भी वो आधी रात तक मैच देखते रहे। सचिन के सत्रह हजार रन पूरे होने पर वो इस तरह से खुश हुए कि बच्चों की तरह कूद पडे़। और जब आखिरी ओवर की आखिरी गेंद पर भारत हार गया तो उनका इस पर कहना था कि ये लोग हारने में एक्सपर्ट हैं। लेकिन दुख कि ये बात है कि जिस समय सचिन को एक ओर मैन ऑफ द मैच दिया जा रहा था तो वही दूसरी ओर प्रभाष जोशी जी को गाड़ी से अस्पताल ले जाया जा रहा था। वो सचिन को मैन ऑफ द मैच पुरस्कार मिलते नहीं देख पाये। प्रभाष जी के इस दुनिया से चले जाने के बाद सचिन ने दुख जताते हुए कहा कि अब मेरा गाईड चला गया है। मैं शुरु से ही प्रभाष जी का लिखा पढ कर अपनी गलतियां सुधारता रहा हूं।
अगर हम बात करें उनके दूसरे विषय कि तो वो था राजनीति, जिस पर वो बैखोफ होकर लिखते थे। उनकी कलम का शिकार लगभग देश का हर प्रधानमंत्री और हर नेता हुआ है। वो नताओं से दोस्ती का नाता रखने के बाद भी उनकी धज्जियां उडाते रहते थे। उनकी लिखी हुई किताब “हिंन्दू होने का धर्म” में आडवाणी को एक फर्जी हिन्दू बताया है। लेकिन इसके बावजूद भी गांधी शांति प्रतिष्ठान में उन्हें आखिरी विदा कहने आडवाणी भी आये थे और वो बहुत ही दुखी थे। इसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी जी का जो श्रद्धांजली लेटर आया था उसमें प्रभाष जी को घनिष्ठ मित्र बताया।
प्रभाष जोशी मीडिया में जिसके खिलाफ थे वो था पत्रकारिता का व्यवसायिकरण। वो हमेशा ही इसके खिलाफ रहे और इसका विरोध करते रहे। मरते दम तक जोशी जी ने पत्रकारिता में फैले व्यवसायिकरण का विरोध किया है। चुनावों में से जिस तरह से मीडिया ने न्यूज कंटेंट बेचने शुरु किये कर दिये इससे वो बहुत दुखी थे। इसके विरोध में उनका कहना था कि “ऐसे अखबारों को रजिस्ट्रेशन रद्द करके प्रिंटिंग प्रेस के लाईसेंस दे देने चाहिए”। ऐसे मामलों की जांच के लिए उन्होंने चुनावों में निगरानी कमेटियां भी बनाई थी। यह उनकी मजबूती ही थी कि उम्र के इस पड़ाव में भी उन्होंने राजनीतिक दलों से प्रेरित पैकेज पत्रकारिता का विरोध किया। इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका से लेकर सभी लोग उनकी पत्रकारिता के कायल थे, उनका सम्मान करते थे।
प्रभाष जोशी: समय का सबसे समर्थ हस्ताक्षर - प्रस्तुत : राजकिशोर द्वारा
किसी भी लेखक के लिए सबसे बड़ी बात यह होती है कि वह अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन जाए। जैसे निराला जी या रामविलास शर्मा हिन्दी जगत के लीजेंड थे और आज भी उनकी यह हैसियत बनी हुई है। हिन्दी पत्रकारिता में प्रभाष जोशी का स्थान ऐसा ही है। वे बालमुकुंद गुप्त, विष्णुराव पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी की महान परंपरा की अंतिम कड़ी थे। भारत में पत्रकारिता जिस दिशा में जा रही है, आनेवाले समय में यह विश्वास करना कठिन होगा कि कभी प्रभाष जोशी जैसा पत्रकार भी हुआ करता था।
पत्रकारिता की ऊंचाई इस बात में है कि वह रचना बन जाए। प्रभाष जी पत्रकारों के बीच रचनाकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा जल्दी में ही लिखा, जो पत्रकारिता की जरूरत और गुण दोनों है, पर उनकी लिखी एक भी पंक्ति ऐसी नहीं है जिसमें विचार या भाषा का शैथिल्य हो। वे जितने ठोस आदमी थे, उनका रचना कर्म भी उतना ही ठोस था। सर्जनात्मकता का उत्कृष्टतम क्षण वह होता है जब रचना और रचनाकार आपस में मिल कर एक हो जाएं। प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व और लेखन, दोनों में ऐसा ही गहरा तादात्म्य था। वे जैसे थे, वैसा ही लिखते थे। इसीलिए उनकी पत्रकारिता में वह खरापन आ सका जो बड़े-बड़े पत्रकारों को नसीब नहीं होता।
पत्रकार अपने समय की आंख होता है। बदलते हुए परिदृश्य पर सबकी नजर जाती है, लेकिन पत्रकार अपने हस्ताक्षर वहां करता है जहां उसके समय का मर्म होता है। इस मायने में प्रभाष जोशी ने अपने पढ़नेवालों या सुननेवालों को कभी निराश नहीं किया। उन्होंने हमेशा अपने वक्त के सबसे मार्मिक बिन्दुओं को चुना और उन पर अपनी निर्भीक और विवेकपूर्ण कलम चलाई। अपने अंतिम बीस वर्षों में उनके दो केंद्रीय सरोकार थे – सांप्रदायिकता और बाजारवादी अर्थव्यवस्था। इन दोनों ही धाराओं में वे महाविनाश की छाया देख रहे थे। सांप्रदायिकता से उन्होंने अकेले जितने उत्साह और निरंतरता के साथ बहुमुखी संघर्ष किया, वह ऐतिहासिक महत्व का है। यह उनकी सनक नहीं थी, भारतीय समाज के साथ उनके प्रेम का विस्फोट था। गहरी सामाजिक संलग्नता की अनुपस्थिति में वह प्रखरता नहीं आ सकती थी जो प्रभाष जी के सांप्रदायिकता-विरोधी लेखन में दिखाई पड़ती है। उनके लिए यह मानो धर्मयुद्ध था, जिसमें उन्हें जीतना ही था।
नई अर्थनीति के खतरों को उन्होंने तभी देख लिया था जब आधुनिकीकरण के नाम पर कंप्यूटर युग की शुरुआत हुई थी और मनुष्य को मानव संसाधन माननेवाली विचारधारा अपने पैर जमा रही थी। आर्थिक सुधारों के नाम पर किए जानेवाले सभी फैसलों को उन्होंने शक की निगाह से देखा और आम आदमी के हितों को ध्यान में रख कर उनकी समीक्षा की। स्वच्छंद पूंजी की धमक से वे बहुत बेचैन रहते थे और उसके सर्वनाशी नतीजों से बराबर आगाह करते रहे। उनके इस आग्रह में गांधीवाद को ढूंढ़ना बेकार है। यह उनके प्रखर राष्ट्र प्रेम की अभिव्यक्ति थी। यह वही राष्ट्र प्रेम था जो उनके अन्य सामाजिक सरोकारों में प्रगट होता था। उनके कर्मकांडी हिन्दू होने के बावजूद उनका विवेक कभी मलिन नहीं होता था। उनके कुछ विचार अंत तक विवादास्पद बने रहे, लेकिन अपनी प्रामाणिकता में उनका गहरा विश्वास था। यह वैसा ही विश्वास है जो किसी प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी में दिखाई पड़ता है। ऐसे मामलों में हमें ‘संदेह का लाभ’ देने में संकोच नहीं करना चाहिए।
मीडियम इज द मेसेज – यह पंक्ति लाखों बार दुहराई जाने के बावजूद अर्थहीन नहीं हुई है। यह कुछ वैसा ही वाक्य है, जैसे गांधी जी की यह धारणा कि साध्य और साधन में पूर्ण एकता होनी चाहिए। पत्रकारिता का मुख्य औजार है भाषा। इसलिए यह संभव नहीं था कि जो व्यक्ति समाचार और विचार, दोनों क्षेत्रों में क्रांति कर रहा हो, वह भाषा के क्षेत्र में परिवर्तन की जरूरत के प्रति उदासीन रहे। अगर भारतेंदु के समय में हिन्दी नई चाल में ढली, तो प्रभाष जोशी ने उसे एक बार फिर नई चाल में ढाला। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनका यह योगदान असाधारण है और इसके लिए उन्हें युग-युगों तक याद किया जाएगा।
पत्रिकाओं के क्षेत्र में जो काम ‘दिनमान’ और ‘रविवार’ ने किया, अखबारों की दुनिया में प्रभाष जोशी द्वारा स्थापित ‘जनसत्ता’ ने उससे कहीं बड़ा और टिकाऊ काम किया। पत्रकारिता की समूची भाषा को आमूलचूल बदल देना मामूली बात नहीं है। यह काम कोई ऐसा महाप्राण ही कर सकता है जिसमें संस्था बनने की क्षमता हो। ‘जनसत्ता’ एक ऐसी ही संस्था बन गई। यह कहना अर्धसत्य होगा कि प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता की तत्कालीन निर्जीव और क्लर्क टाइप भाषा को आम जनता की भाषा से जोड़ा। यह तो उन्होंने किया ही, उनका इतने ही निर्णायक महत्व का योगदान यह है कि उन्होंने जन भाषा को सर्जनात्मकता के संस्कार दिए। हिन्दी की शक्ति उसके तद्भव व्यक्तित्व में सबसे अधिक शक्तिशाली रूप में प्रगट होती है। प्रभाष जी का व्यक्तित्व खुद भी तद्भव-जन्य था। वे खांटी देशी आदमी थे। उनकी अपनी भाषा भी ऐसी ही थी। आश्चर्यजनक यह है कि उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता से अपने पूरे अखबार को ऐसा ही बना दिया। इस क्रांतिकारी रूपांतरण में उनके संपादकीय सहकर्मियों की भूमिका को कम करके नहीं आंकना चाहिए।
मीडियम के इस परिवर्तन में मेसेज का परिवर्तन अनिवार्य रूप से समाहित था। सो ‘जनसत्ता’ की पत्रकारिता एक नई संवेदना ले कर भी आई। यह संवेदना शोषित और पीड़ित जनता के पक्ष में और सभी प्रकार के अन्याय के विरुद्ध थी। भारत की जनता के दुख और पीड़ा के जितने भी पहलू हो सकते थे, इस नए ढंग के अखबार ने सभी को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया। दुख की बात यह है कि बाद की पीढ़ी ने इस भाषा को तो अपनाया, पर उसकी पत्रकारिता में वह संवेदना नहीं दिखाई देती जिसे प्रभाष जी ने ‘जनसत्ता’ के माध्यम से विस्तार दिया।
प्रभाष जोशी का व्यक्तित्व बहुमुखी और समग्रता लिए हुए था। उसमें साहित्य, संगीत, कला – सबके लिए जगह थी। इस गुण ने उनकी पत्रकारिता में चार चांद लगा दिए। ‘जनसत्ता’ ने हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का पुनर्वास किया। ऐसे समय में, जब पत्रकारिता साहित्य से कटने में गर्व का अनुभव कर रही थी, यह एक साहसिक घटना थी। इसी तरह, संस्कृति के अन्य रचनात्मक पक्षों को भी प्रभाष जोशी ने पूरा महत्व दिया। खेल में तो जैसे उनकी आत्मा ही बसती थी। कुल मिला कर, हिन्दी प्रदेश में प्रभाष जोशी एक समग्र बौद्धिक केंद्र थे और ऐसा ही वातावरण बनाने के लिए अंतिम समय तक सक्रिय रहे। प्रभाष जी को आधुनिक भारत का सबसे बड़ा पत्रकार कहा जाए, तो इसमें अतिशयोक्ति का एक कतरा भी नहीं है।